बात नहीं करता खुली किताब की तरह,शायद पन्नो को ओड कर जीने की आदत है..जब से होश संभाला है यकीनन जिंदगी मज़े से जी है..मज़े का मतलब पैसे से नहीं या किसी ब्रांड से..बस आज बात करना चाहता हूँ,थोड़ा घुल जाना चाहता हूँ..मुझे कभी हारने से डर नहीं लगा..अच्छा बनने की चाहत में बुराई मोल ले आता था..जिंदगी के सबसे अहम पल आपके मेरे हम सब की तरह सफर में गुज़र गए चाहे वो..बस का सफर हो या जिंदगी जीने की जद्दोजहद का..इन सब के बीच कुछ ऐसे लोगो ने जिंदगी बदली जिनके बारे में शायद लिखने से हाथ काँप उठे पर लिखना चाहता हूँ..कुछ ऐसे पल हम सब जीते है जिन्हे जीने के थोड़ी देर बाद या उसी समय में मन में ख्याल आता है "जिल्लत के पल" हां अक्क्सर हम सब किसी ऐसे दौर में होते है जब हमे उनके बीच में रहना पड़ता है जिनसे जैसे हम पहली बार मुलाक़ात कर रहे होते है..ये ठीक वैसे ही है जैसे अलग अलग जुर्म किये हुए कैदी एक बैरक में ला कर पटक दिए गए हो..और थोड़ा भी मामला नरम गरम होने पर अक्क्सर बात तानो तक आ जाती हो..जी हां में शायद आपकी सोच के उलट बात कर रहा हूँ..एक ऐसे परिवार की जहाँ पैसा ही सब कुछ होता है,,जहाँ समाज में इज़्ज़त चले जाने का ना डर होता है..अच्छी संस्कारी बहु ना ला पाने का मलाल होता है..बेटो के बिगड़ जाने का डर होता है..विरासत को मिटटी में ना मिलने देने का घमंड होता है..आपके हमारे बीच कही ना कही इस लेख के पात्र होंगे और यकीन मानिये वो सब कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे की उनमे ये सब दोष है..बात उन दिनों की है जब में समझ से थोड़ा समझने लगा और लोगो ने उनकी समझ से समझाने की कोशिश की..पर कहते है ना अलग अलग जगह पर अलग सीख मिलती है..क्रिकेट मुझे बहुत पसंद था..जब क्रिकेट खेलता था तो शायद क्रिकेटर बनने का सपना था..धीरे धीरे हर उस चीज़ से समझौता किया जाने लगा जो मुझे अपनों के स्वाभिमान के खो जाने से डराती थी..थोड़ा और समझदार हुआ तो शायद हर उस इंसान की तरह बनने की कोशिश करने लगा जो सफलता के सातवे आसमान पर बुलंदी के झंडे गाड़ रहा था..खैर वो भी ना चाहते हुए त्यागना पड़ा..जब हर युवा की तरह प्रेम के रस में डूबने की कोशिश की तो शायद वो भी मुक्कमल नहीं हो सका..कहते है ना दिल की बात जुबा पर लाना बहुत मंहगा पड़ जाता है कभी..लेकिन इन सब के बीच में एक अच्छा दोस्त मिला..जिसने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा..कभी कुछ नहीं कहा..बस थोड़े से पानी में घुल कर..बर्फ की चादर ओड कर मेरे गले को तर करता रहा..जी हां थोड़ा बुरा इंसान भी रहा हूँ इसलिए कह रहा हूँ जिंदगी मज़े से जीने का नाम है..कभी बैठिये "मधुशाला" में बिछड़े साथी मिलते है..जैसे सब कोई ना कोई गम दफ़न करके खुशियाँ मानाने आये हो..लेकिन चैन कभी मिल नहीं पता कितनी भी कोशिश करो..शर्मा जी के लड़के से पिछड़ने का डर..ज्योति के किसी और की हो जाने का डर..जिंदगी में कुछ ना कर पाने का डर हम सब के लिए वो डर एक जैसा है बस किरदार बदल जाते है..मेरे लिए शायद सबसे अच्छे पलो में कुछ ऐसे साथी रहे है जिन्होंने असल में या नक़ल में जैसे हो भी मेरे साथ खड़े रहने की हिम्मत जुटाई है..आज तक मेरी कहानी में वही सब होता रहा जो आप और में अक्क्सर सपने में देखते रहे है..सपना अच्छा हो या बुरा पूरा होते होते है कोई ना कोई उठा ही देता है "मेरे लिए माँ कभी नींद में रुकावट नहीं बनी" क्योकि वो जानती थी,
मैं थक जाता हूँ अपनी मुश्किलो से दिन भर लड़ते लड़ते या फिर ये कहूं की मैंने कभी उन्हें अपना होने का अहसास नहीं करवाया..किस्समत से सब कुछ मिला..पर शायद किस्समत का पाने में यकीन नहीं रहा..इसलिए सोचता था कैसे अपने सपने पुरे करूँ,लेकिन इन सब के बीच में मेरे अपनों के सपने भी थे..वही डर वाले सपने..ना मेरे सपने पुरे हो पाए ना उनके..डर अब भी बाकी है उनका वही जो जो उनके मन में था,पर मेरा बदल गया क्योकि में समझ चूका हूँ जिन सपनो के पीछे में भाग रहा असल में वो मेरे थे ही नहीं..यही होता है हमारे सबके साथ हम कही दिनों सालो तक दुसरो के सपनो को अपना मान कर चलने लगते है..और जब टूट जाते है तो सोचते है नींद पूरी नहीं होने दी किसी ने..और अक्क्सर उन्हें कोसते है जिन्हे हम परिवार कहते है..शायद मैं कभी उनकी तरह सोच पाऊँ जिन्हे लगता है....
मैं या मेरे जैसे बहुत से लोग गलत है..बस कुछ अधूरे डर से डरने का अब मन नहीं करता क्योकि मुझे इस दुनिया में आना था और वो माध्यम मेरा परिवार था..हम सब के साथ शायद यही हुआ है..लेकिन हमने अभी तक दुनिया में आने का मकसद शायद समझा ही नहीं..हमारे सबके मन में अलग अलग तरह के सपने है जो सच होने के लिए पंख फड़फड़ा रहे है..जिन्हे खुला आसमान चाहिए सच करने के लिए..एक कटी पतंग की तरह आज़ादी चाहिए जो जहाँ जाना चाहे जा सके..लेकिन वो तब ही सच होगा जब ये डर हम निकाल कर "सवच्छ भारत अभियान" के डिब्बे में डाल देंगे..मैंने तो डाल दिए है डिब्बा नहीं मिला तो वो कैलाश खैर की आवाज़ वाली गाडी को ढूंढ कर डाल आया हूँ..जिंदगी बस इतनी बड़ी और इतनी सच्ची है जितनी आप जीते है बाकी आप १०० वर्ष भी जी गए तो मलाल के साथ जियोगे..मिलते है फिर कही बेतुकी बातो के साथ..किसी चौराहे पर मिल ही जाऊँगा..चाय का कप हाथ में लिए..असल में चाय एक बहाना है मैं तो बस वहाँ बैठे लोगो से मुखातिब होना चाहता हूँ क्योकि ये वही लोग है जो दुनिया से आज़ाद हो कर जीना पसंद करते है..चिंताओं से घिरे रहते है फिर भी मन को समझाते है "रख हौसला अभी बहुत कुछ बाकी है,अभी तो नापी हे मुठ्ठी भर ज़मीन अभी तो पूरा आसमान बाकी है"
लेखन- विजयराज पाटीदार
मैं थक जाता हूँ अपनी मुश्किलो से दिन भर लड़ते लड़ते या फिर ये कहूं की मैंने कभी उन्हें अपना होने का अहसास नहीं करवाया..किस्समत से सब कुछ मिला..पर शायद किस्समत का पाने में यकीन नहीं रहा..इसलिए सोचता था कैसे अपने सपने पुरे करूँ,लेकिन इन सब के बीच में मेरे अपनों के सपने भी थे..वही डर वाले सपने..ना मेरे सपने पुरे हो पाए ना उनके..डर अब भी बाकी है उनका वही जो जो उनके मन में था,पर मेरा बदल गया क्योकि में समझ चूका हूँ जिन सपनो के पीछे में भाग रहा असल में वो मेरे थे ही नहीं..यही होता है हमारे सबके साथ हम कही दिनों सालो तक दुसरो के सपनो को अपना मान कर चलने लगते है..और जब टूट जाते है तो सोचते है नींद पूरी नहीं होने दी किसी ने..और अक्क्सर उन्हें कोसते है जिन्हे हम परिवार कहते है..शायद मैं कभी उनकी तरह सोच पाऊँ जिन्हे लगता है....
मैं या मेरे जैसे बहुत से लोग गलत है..बस कुछ अधूरे डर से डरने का अब मन नहीं करता क्योकि मुझे इस दुनिया में आना था और वो माध्यम मेरा परिवार था..हम सब के साथ शायद यही हुआ है..लेकिन हमने अभी तक दुनिया में आने का मकसद शायद समझा ही नहीं..हमारे सबके मन में अलग अलग तरह के सपने है जो सच होने के लिए पंख फड़फड़ा रहे है..जिन्हे खुला आसमान चाहिए सच करने के लिए..एक कटी पतंग की तरह आज़ादी चाहिए जो जहाँ जाना चाहे जा सके..लेकिन वो तब ही सच होगा जब ये डर हम निकाल कर "सवच्छ भारत अभियान" के डिब्बे में डाल देंगे..मैंने तो डाल दिए है डिब्बा नहीं मिला तो वो कैलाश खैर की आवाज़ वाली गाडी को ढूंढ कर डाल आया हूँ..जिंदगी बस इतनी बड़ी और इतनी सच्ची है जितनी आप जीते है बाकी आप १०० वर्ष भी जी गए तो मलाल के साथ जियोगे..मिलते है फिर कही बेतुकी बातो के साथ..किसी चौराहे पर मिल ही जाऊँगा..चाय का कप हाथ में लिए..असल में चाय एक बहाना है मैं तो बस वहाँ बैठे लोगो से मुखातिब होना चाहता हूँ क्योकि ये वही लोग है जो दुनिया से आज़ाद हो कर जीना पसंद करते है..चिंताओं से घिरे रहते है फिर भी मन को समझाते है "रख हौसला अभी बहुत कुछ बाकी है,अभी तो नापी हे मुठ्ठी भर ज़मीन अभी तो पूरा आसमान बाकी है"
लेखन- विजयराज पाटीदार
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