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Showing posts from 2017

मंजिल तक पंहुचने के लिए नये और मुश्किल रास्ते भी चुनना जरूरी है

बात लगभग दो साल पहले ठंड के दिनों की है mba पूरा होने के बाद मैं ज्यादा से ज्यादा समय इंटरव्यू की तैय्यारी के लिए ही दे रहा था,लेकिन लगातार मुझे मिल रही असफलताओ से मैं थोडा चिंतित रहने लगा था,ऐसे में मेरे एक दोस्त ने मेरी परेशानी समझ कर मुझे कंही घूम आने की सलाह दी इससे मेरे दिमाग में चल रही एक जैसी चीजों से छुटकारा भी था और ठंड के दिनों में कंही घूम आने का अवसर भी,मैंने तुरंत हामी भर दी हम दोनों अगली ही सुबह घर से (आगर के पास) निकल गए,टूर ओम्कारेश्वर होते हुए मांडू पहुँचने का था,हम दोनों मेरी बाइक से उज्जैन होते हुए इंदौर आये और यंहा से फिर ओम्कारेंश्वर के लिए शाम को सात बजे निकले ठंड के दिन होने की वजह से हमे अँधेरे ने जल्दी अपनी आगोश में ले लिया,बीच में एक-दो जगह चाय नास्ता करते हुए हम बडवाह पंहुचे बहुत देर चलते रहने के बाद भी जब बडवाह में नर्मदा नदी पर बने पुल को हम लोग ढूंड नहीं पाए तो हम समझ गए कंही हम होना-ना-हो जरूर रास्ता भटक गए है वहीँ एक सज्जन से पता पूछने पर पता चला की हम बडवाह के पास बसे एक गाँव में और यहाँ से वापस बडवाह जाना सोलह किलोमीटर रहेगा लेकिन दूसरी और ही राहत की

अपने अंश को समझिये

   अपने अंश को समझिये बचपन मिटटी की तरह है जिसे पेरेंट्स रूपी कुम्हार अपने हाथो से सँवारने की कोशिश करते हैं यहाँ सँवारने की कोशिश इसलिए भी क्यों की कुछ मिट्टी इतनी अलग होती है जिन्हें कुछ बना पाना मुश्किल होता हैं।जिन्हें खुली जमीन पर बिखर जाना , आसमान में धूल का गुबार बन उड़ जाना ही आता हैं और सच कहूँ ना तो ऐसे ही बचपन की खोज आज आपका बच्चा कर रहा हैं।आपने जमाने की फार्चूय्नर में अपनी रेनो क्वीड दबी होने का डर सीने से लगा लिया हैं और इस डर से लड़ने की कोशिश में आप अपने बच्चों को ढाल बना रहे हैं, इस तरह के व्यवहार से बच्चा कभी आपकी बातो को नही समझ पायेगा. नाम तो शायद नही जान पाया लेकिन उम्र यही कोई आठ-नौ साल रही होगी , गोल-मोल शरीर फिर भी सुविधा अनुसार नाम अनु रख लेते हैं। तुझे कितनी बार मना किया है बाहर मत खेला कर।(अनु की मम्मा की आवाज थी अनु के जवाब देने के बाद बता चला) मम्मा आप कभी बाहर नहीं खेलने देते कोई खा थोड़ी जायेगा।(शायद ये शब्द इतने धीरे थे की बस में और अनु ही सुन पाये)...मैं कमरे मे आ चुका था जो कि ग्राउंड फ्लोर के ठीक साइड में बने एक कोने मे फर्स्ट फ्लोर पर था।

अपने अंश को समझिये

बचपन मिटटी की तरह है जिसे पेरेंट्स रूपी कुम्हार अपने हाथो से सँवारने की कोशिश करते हैं यहाँ सँवारने की कोशिश इसलिए भी क्यों की कुछ मिट्टी इतनी अलग होती है जिन्हें कुछ बना पाना मुश्किल होता हैं।जिन्हें खुली जमीन पर बिखर जाना , आसमान में धूल का गुबार बन उड़ जाना ही आता हैं और सच कहूँ ना तो ऐसे ही बचपन की खोज आज आपका बच्चा कर रहा हैं।आपने जमाने की फार्चूय्नर में अपनी रेनो क्वीड दबी होने का डर सीने से लगा लिया हैं और इस डर से लड़ने की कोशिश में आप अपने बच्चों को ढाल बना रहे हैं, इस तरह के व्यवहार से बच्चा कभी आपकी बातो को नही समझ पायेगा नाम तो शायद नही जान पाया लेकिन उम्र यही कोई आठ-नौ साल रही होगी , गोल-मोल शरीर फिर भी सुविधा अनुसार नाम अनु रख लेते हैं। तुझे कितनी बार मना किया है बाहर मत खेला कर।(अनु की मम्मा की आवाज थी अनु के जवाब देने के बाद बता चला) मम्मा आप कभी बाहर नहीं खेलने देते कोई खा थोड़ी जायेगा।(शायद ये शब्द इतने धीरे थे की बस में और अनु ही सुन पाये)मैं कमरे मे आ चुका था जो कि ग्राउंड फ्लोर के ठीक साइड में बने एक कोने मे फर्स्ट फ्लोर पर था।लेकिन मन मैं एक सवाल अब भी चुभ

भ्रमण किस्सों का..

अलसुबह उठना सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है..ऐसा डॉ लोग कहते है लेकिन हम मानते कहा है ये बात तब और बिगड़ जाती है जब मेरे जैसे दुनिया की चिंता “भाड़ में जाये वाले” विचारों से करते है..खैर २० सितम्बर २०१७ यानी अभी एक हफ्ते पहले बीना डॉ की सलाह लिए अलसुबह ६.०० बजे उठना पडा,बात असल में कुछ ऐसी है की हमने प्लान किया था कंही बहार जाने का,घुमने का,मौज मस्ती करने का,हमने से मतलब मैं और अनुराग,जी हां अनुराग वही है जिनका जिक्र में अपने एक छोटे लेखन “नमक स्वादानुसार-बस टाइटल चोरी का है” में कर चुका हूँ..हां तो सीधे अपने यात्रा व्रतांत पर आता हूँ..सुबह उठे तो मौसम साफ़ नहीं था और ये सब असर था पूर्व में बने कमजोर मानसूनी दबाव का जिससे मध्य-प्रदेश और आस पास के प्रदेशो में भारी बारिश की चेतावनी दी गयी थी..फिर भी हमने सोचा जाना जरूरी है क्योंकि दो दिनों से जाने को जो ठीन्डोरा जो हमने बाकी तीन ना जाने वाले साथियों के सामने पिटा था वो बाहर हो रही बारिश का मज़ा लेकर हमे मन ही मन ये जता और बता रहे थे की “लो,ले घुमने का,घंटा पानी अब कंही ना जाने दे तुमको”..लेकिन हमारे विचारो ने सांठ-गाँठ कर ली थी..हमने स

कल की बात और मिताली राज

कल की बात और मिताली राज ................. ................... रविवार का दिन,ऑफिसियल छुट्टी,फुर्सत या ये कह लीजिये एक बैचलर के लिए तमाम वो काम करने का दिन जो वो सप्ताह के ६ दिन नहीं कर सकता,सुबह वैसे नहीं हुयी जैसे रोज होती थी..आज थोड़ी देर तक सोया,लगभग साढ़े नौ बजे तक जब आँख खुली तो दीपक और सचिन अपनी कॉम्पिटिशन एक्साम की तैयारियो में वयस्त थे,मैंने ब्रश करने के बाद सीधे डेयरी पर जाकर दूध और पास वाले रेस्टॉरेंट से पांच पुड़िया पोहे पैक करवाये..रूम पर आकर हम सब ने संडे को स्पेशल बनाने के लिए कोई बेवजह का मुद्दा नहीं छेड़ा और ना किसी बात पर चर्चा की,आंटी ने खाना बनाया,.....हां क्या बनाये? इस पर थोड़ी चर्चा करने के बाद दाल बाटी बनाने का DECISION हुआ अब बारी थी निचे जा कर मकान मालकिन से ओवन लाने की अगर गांव में होता तो माँ गाय के गोबर से बने कंडो की धुनि बनाकर बाटी भार देती लेकिन शहरो ने गांवों के रिवाजो,परम्पराओ को लील लिया जैसे एक कुंवारी कन्या को एक चुटकी सिन्दूर सुहागन होने की सैज पर लील जाता है लेकिन दूसरी और आज का दिन ख़ास और बहुत ख़ास भी होने वाला था मिताली राज और उनकी टीम की पंद्रह-स

अवि वाली अंकिता..

जब भी कभी पहली दफा हाथ में पेम-पेन्सिल-कलम पकड़ी होगी उस दिन शायद में बहुत रोया होगा,इसलिए नहीं की में लिखने से दर रहा था बल्कि इसलिए कंही में गलत ना लिख दूँ,जब में स्लेट पर "अ" बनाने की कोशिश करता था तो वो हमेशा मेरी टीचर को "8" की तरह ही दिखता था,फिर मैंने धीरे धीरे उस "8" को सही करके "अ" बनाने लगा,सब खुश हुए मेरी टीचर,मेरे पापा,मेरी माँ और शायद अंकिता भी,अंकिता का जिक्र करना यंहा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वो जब भी मुझे कुछ सीखते या करते देखती वो बहुत खुश होती,स्कूल में आने वाले हर बच्चो की तरह ही वो भी थी क्लास में हम दोनों के बेंच के दोनों कोनो के आस पास ही बैठते थे बीच में जो थोड़ी जगह होती थी वो हमारे बस्ते रखने से भर जाती थी वो टिफ़िन नहीं लाती थी वजह कभी उसने मुझे नहीं बताई और मैंने पूछा भी नहीं,मैं अपने टिफिन में उसके लिए भी खाना लेकर आता था या फिर मेरी मम्मा को पता था मेरे साथ अंकिता भी खाना शेयर करती है शायद मैंने ही उन्हें कभी अंकिता के टिफिन ना लाने वाली बात बताई हो,एक दिन लंच ब्रेक में स्कूल के ग्राउंड में लगे गुल्लर के पेड़ के नीचे हम

जिंदगी की पहली दारू पी नहीं,पीला दी जाती है..

जिंदगी की पहली दारू पी नहीं,पीला दी जाती है यूँही फ्री में जिसका उधार कितनी ही बार साथ बैठ कर पी लो लेकिन चुकाने का मन नहीं होता या फिर चुकाने की याद नहीं आती,वैसे तो दारु पर लिखना उतना ही बेकार है जितना बस में सफर कर रहे हो और पास में बैठा कोई यात्री आपकी गोद वाश बेसिन समझ कर खा या पीया उड़ेल दे,पर मुझे लिखने के लिए किसी प्रकार की कोई भी इंस्पिरेशन की जरूरत नहीं होती अच्छा लगे या बुरा में बस लिख देता हूँ और शायद हम सब बस इन वजहों से पीछे रह जाते है क्योंकी हम दुसरो की प्रतिक्रिया के इंतज़ार में अपने मन के किस्से,बाते कभी बहार ला ही ना पाते..जिंदगी के पहले हर वो काम जो किये नहीं करवाए जाते है..कभी सुना है किसी बच्चे ने सत्नपान किया नहीं ना माँ ने करवाया पहली बार,आपको याद है जिन्दी की पहली सु-सु खुद ने की थी,किसी ने सु-सु बोलकर करवाई थी,साला मुझे तो दुनिया में लाने के लिए भी नर्स ने सांस दी थी,पोट्टी भी जंहा तक याद है शायद माँ ने आकस्मिक आवाजों के सहारे ही करवाई थी,ऐसा ही कुछ मेरे जहन में किस्सा आता है जब में अपने पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए उज्जैन आया था,सही सोच रहे है आप वही उज्जैन जिसे महा

"नमक स्वादानुसार"..बस टाइटल चोरी का है.

आप सोच रहे होंगे ये जनाब अपनी कहानी का टाइटल निखिल सचान की "नमक स्वादानुसार" से चुरा कर लाये है,तो बिलकुल सही सोच रहे है,क्या है ना मैं परवाह नहीं करता क्या कहाँ से आया,और मैं कहाँ से लाया और वैसे भी किसी महान पुरुष ने कहा है अगर कोई चीज कुछ सिखाती है तो उसे अपने जीवन में उतार लो..पर मैंने तो चुरा लिया क्यों मुझे नमक स्वादानुसार ही लगता है और शायद आपको भी,दरअसल मैं कोई महान लेखक तो हूँ नहीं लेकिन जब भी दिमाग के कीड़े मुझे बैचैन करते है मैं अपने आप को लिखने के लिए कहता हूँ.. सुबह का समय था.. रोज की तरह ७.४० पर उठा लेकिन मेरे आलस की अंगड़ाई मेरे वयस्त समय पर चद्दर डाल कर सोने को मजबूर कर रही थी..१० मिनिट और सो लिया जाय आप मैं हम सब ऐसे ही मन को चुतिया बना कर सोने की कोशिश करते है लेकिन ये १० मिनिट कब ३० मिनिट में बदल जाते है पता ही नहीं चलता..निचे रूम से उठ कर यही सोचता आ आ रहा था "अनु आज मुझे उठाने क्यों नहीं आया?शायद आया भी हो लेकिन मैं उठा नहीं हो?अगर में उठा नहीं तो वो देखते ही चिल्लायेगा? ये सवाल खुद से पूछ कर खुद से जवाब मांग रहा था..लेकिन ऊपर रूम में जा कर देखा तो

स्कूल का पहला दिन

स्कूल का पहला दिन अमूमन बहुत ही कम उम्र में देखने को मिलता है..जब हमे शायद ठीक से तारीख,वार,समय तक याद नहीं होता,याद होता है तो बस धूल भरी सड़को पर भागते रहना,दिन भर बिना थके खेलते रहना,मम्मी से आइसक्रीम की जिद्द करना,पापा के कंधो पर बाजार जाना,दादा-दादी से कहानियाँ सुनना..लेकिन स्कूल का पहला दिन जहन में एक ना मिटने वाली तस्वीर का तरह हमेशा रह जाता है..वो दिन जिस समय हम अपने माँ-पापा की उँगली छूटने से डरते है..अपनी शैतानियों को खुल करने की बजाय १५*३० की क्लास में करने की सोचते है,टीचर के हाथो की पिटाई को याद रखने की कोशिश करते है..ऐसा ही कुछ मेरा भी पहला दिन था स्कूल में जुलाई की पहली तारीख साल १९९५ का था साल इसलिए भी याद रहा क्योकि इसी साल में मुझे छोटा भाई मिला था..तैयारी किसी जंग पर जाने जैसी चल रही थी..मम्मी की मनपसंद चीजों को मेरे लिए लाया जा रहा था..टिफिन,बॉटल,बेग, लेकिन एक चीज से बहुत नाराज थे,मेरे स्कूल की यूनिफार्म बहुत ही खराब लगी थी उन्हें..लेकिन फिर भी उन्होंने उसे नज़रअंदाज़ किया क्योंकि गांव में एक मात्र स्कूल ही था..सुबह हो गयी थी बेग तैयार था और मम्मी भी,मुझे पहली बार उन

माना की तुम यार नहीं........शिवराज अकेला ही काफी है.

माना की तुम यार नहीं........शिवराज अकेला ही काफी है..शिवराज किसानो का है..शिवराज आम जनता का है..पिछले १० बरस में कभी तन्हा नहीं देखा तुम्हे आज इस तरह देख कर बेबस हूँ..तुम बहुत हिम्मती हो मेरे दोस्त तुम बहुत जज्जबाती हो..तुमने पिछले बीते सालो में अपनी पूरी कोशिश की है प्रदेश को उन्नति पर ले जाने की,तुमने हर असंभव काम को पूरा किया है..हम सब मानते है तुमने कोई कोर कसार नहीं छोड़ी प्रदेश को आगे ले जाने की..तुम्ही हो जिसने प्रदेश में बड़े बड़े उद्योगपतियों को आने पर विवश किया..लेकिन में थोड़ा सा अब स्वार्थी हो गया हूँ "सारथी नहीं" पिछले १० दिनों में तुमने शायद ठीक से अन्न पान नहीं क्या है..तुम लाचार से लग रहे हो तुम्हारे बड़े होंटो से मुस्कान गायब है..बस एक सवाल मुझे तुम्हारे विरोध में खड़ा कर रहा है..क्या तुमसे सत्ता नहीं संभल रही ? या फिर तुम्हारे पिटारे के नाश मिटे मंत्री इस लायक नहीं जो तुम्हारे सपनो को साकार कर सके..कहा गया वो व्यापम चोर लक्ष्मीकांत क्या तुम्हारा मंत्री बिक गया था? कहा गयी वो घमंड से भरी बड़ी मंत्री जिसने बच्चे को लात मारी थी? कहा गया वो भूपेंद्र सिंह जिसके बेतुक

कच्ची मिट्टी के घड़े

उस शाम हवा कुछ नम चल रही थी शायद कहीं बारिश बूँद बनकर धरती के गालों पर चूमने को गिरी होगी,उत्तर की और कोई दो सौ गज मुझसे एक बिजली चमकी शायद कहीं मींलो दूर आसमानी आफत आयी होगी या फिर कोई अब्राहम लिंकल सड़क के किनारे बैठा बिजली आने का इंतजार कर रहा होगा जो बारिश की वजह से अब तक गुल थी।हाँ ये ही होगा क्यों की बिजली ठीक उत्तर में गिरी थी और उत्तर में तो अमरीका हैं जनरल नाॅलेज की किताब में पढ़ा था।पर ये उत्तर उत्तर में ही क्यों हैं?दक्षिण या पूरब में क्यों नही? मीनू से पूँछूगा,मीनू से तो पेंसिल लेनी है जो उसने गणित वाले पिरियड में तोड दी थी। कुछ इसी तरह होता है बचपन जिसे ना कहीं खो जाने का डर ना ही दादी नानी की सफेद साड़ी वाली चुडैल के उठा ले जाने का खौफ या फिर गोलु के घर की टपरी की घास बारिश के बवंडर में उड जाने का डर या रिंकु का क्लास में सबसे आगे बैठ जाने का डर।खैर ऐसे डर से हम सब दो चार होते आये हैं..जिंदगी में हम सब ने ऐसी ही किसी बारिश में बीना लड़की के साथ भीग जाने वाले अहसास जीये हैं तरबतर् कपड़ो में पानी से भरे खड्डो में छयी-छपा-छयी खेलने का आंनद रिया की स्कूल ड्रेस पर बचा हुआ

अच्छी लड़की......

लोग मेरे साथ रह नही सकते उनको लगता हैं निहायती बदद्तमीज,बद्दिमाग इंसान हूँ और सिर्फ इसलिए नही कह रहा हूँ क्योंकि ये मैं सोचता हूँ बल्कि इसके पीछे एक खास वजह हैं "मैंने जिंदगी में कभी कोई काम सही तरीके से सही करने की कोशिश नही की" लोगों ने मेरे साथ रिश्ते बनाये उन्हें बेडरूम की बेडशीट की तरह इस्तेमाल किया यहाँ बेडरूम की बेडशीट शब्द का उपयोग इसलिए सही हैं क्योंकि कुछ रिश्ते चेहरों से शुरू होकर बिस्तर पर बाहों में बाहें डाले हुये दम तोड़ देते हैं साथ छोड़ देते हैं "बैडरूम की बेडशीट और लोगो से मतलब सिर्फ गंदगी भरी उलझनों से है लिखते समय हरगिज़ नहीं सोचता क्या लिख रहा हूँ पर सच कहूं तो ये वो सड़ांद है जो समाज के दिमाग में आज भी भरी है" और मेरे जैसे नामाकुल "कुल" की लाज भी नही बचा पाते हैं मुझे समझना नामुमकिन था इसलिए लोगों ने कुछ उपनाम दे दिये इसलिए की मैं बुरा इंसान हूँ लेकिन आप जानते हैं जब आदमी चोंट खाता हैं तो फिर वो दुनिया को ठेंगा दिखाने लग जाता हैं क्यों वो जान चुका होता हैं उसे राॅकस्टार के रनबीर कपूर की तरह अंत मे नरगिस मिल जायेगी वो नरगिस जो समाज की

"बेतुकी बकवास"

बात नहीं करता खुली किताब की तरह,शायद पन्नो को ओड कर जीने की आदत है..जब से होश संभाला है यकीनन जिंदगी मज़े से जी है..मज़े का मतलब पैसे से नहीं या किसी ब्रांड से..बस आज बात करना चाहता हूँ,थोड़ा घुल जाना चाहता हूँ..मुझे कभी हारने से डर नहीं लगा..अच्छा बनने की चाहत में बुराई मोल ले आता था..जिंदगी के सबसे अहम पल आपके मेरे हम सब की तरह सफर में गुज़र गए चाहे वो..बस का सफर हो या जिंदगी जीने की जद्दोजहद का..इन सब के बीच कुछ ऐसे लोगो ने जिंदगी बदली जिनके बारे में शायद लिखने से हाथ काँप उठे पर लिखना चाहता हूँ..कुछ ऐसे पल हम सब जीते है जिन्हे जीने के थोड़ी देर बाद या उसी समय में मन में ख्याल आता है "जिल्लत के पल" हां अक्क्सर हम सब किसी ऐसे दौर में होते है जब हमे उनके बीच में रहना पड़ता है जिनसे जैसे हम पहली बार मुलाक़ात कर रहे होते है..ये ठीक वैसे ही है जैसे अलग अलग जुर्म किये हुए कैदी एक बैरक में ला कर पटक दिए गए हो..और थोड़ा भी मामला नरम गरम होने पर अक्क्सर बात तानो तक आ जाती हो..जी हां में शायद आपकी सोच के उलट बात कर रहा हूँ..एक ऐसे परिवार की जहाँ पैसा ही सब कुछ होता है,,जहाँ समाज में इज़्ज़त

हम इतना शोर किस लिए कर रहे है जबकि हम सर्वधर्म की संस्कृति और उनके सम्म्मान के परिचायक है..हां हम सब एक है..

स हमत हूँ आपकी बात से और निष्पक्ष होकर बात करना पसंद करता हूँ...मोदी जी,योगी जी यहाँ तक हम सब हिंदुस्तानी है अगर हम चाहे की हिन्दू और मुसलमानो में फर्क हो तो ठीक है बाँट दीजिये आज अभी हम सब यही करते है आप मस्जिद के स्पीकर उतार दीजिये वो मंदिर के..हम उनकी पार्थनाओ को बंद कर देते है वह हमारी..गलत ही होगा ना अगर में किसी से कहूं भाईजान तुम्हारी मस्जिद की स्पीकर बहुत आवाज़ करती है यार पता है वो क्या बोलेगा "भाई मुश्किल से दिन में २० मिनिट की अज़ान करते है साल में दो चार बार मोहर्रम पर तासे ठोकते है"लेकिन सबसे ज्यादा स्पीकर तुम भी बजाते हो तुम्हारे धर्म में घंटो तक स्पीकर का सहारा ले कर आवाज़ लोगो तक पहुंचाई जाती है" चलो ये ज्ञान भी नहीं लगाए का तो सिर्फ इतना पूछेगा हमसे क्या हमारा देश नहीं है..और अगर आप चाहते हो हम दूसरे देशो की तरह इन पर पाबंदी लगाना शुरू कर दे तो करवा दीजिये उसके नतीजे पडोसी देश से आएंगे,आज इतने अमन चैन से रहने के बाद भी इस कौम के लोग उतपात मचाये हुए तो फिर कितना मचाएंगे सोचो और हां हम दूसरे देशो से तुलना करके बदल भी जाए तो क्या होगा पिछली बार इन्होने लाशो