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कच्ची मिट्टी के घड़े

उस शाम हवा कुछ नम चल रही थी शायद कहीं बारिश बूँद बनकर धरती के गालों पर चूमने को गिरी होगी,उत्तर की और कोई दो सौ गज मुझसे एक बिजली चमकी शायद कहीं मींलो दूर आसमानी आफत आयी होगी या फिर कोई अब्राहम लिंकल सड़क के किनारे बैठा बिजली आने का इंतजार कर रहा होगा जो बारिश की वजह से अब तक गुल थी।हाँ ये ही होगा क्यों की बिजली ठीक उत्तर में गिरी थी और उत्तर में तो अमरीका हैं जनरल नाॅलेज की किताब में पढ़ा था।पर ये उत्तर उत्तर में ही क्यों हैं?दक्षिण या पूरब में क्यों नही?
मीनू से पूँछूगा,मीनू से तो पेंसिल लेनी है जो उसने गणित वाले पिरियड में तोड दी थी।
कुछ इसी तरह होता है बचपन जिसे ना कहीं खो जाने का डर ना ही दादी नानी की सफेद साड़ी वाली चुडैल के उठा ले जाने का खौफ या फिर गोलु के घर की टपरी की घास बारिश के बवंडर में उड जाने का डर या रिंकु का क्लास में सबसे आगे बैठ जाने का डर।खैर ऐसे डर से हम सब दो चार होते आये हैं..जिंदगी में हम सब ने ऐसी ही किसी बारिश में बीना लड़की के साथ भीग जाने वाले अहसास जीये हैं तरबतर् कपड़ो में पानी से भरे खड्डो में छयी-छपा-छयी खेलने का आंनद रिया की स्कूल ड्रेस पर बचा हुआ बाॅटल का पानी डालना या वो "दो चोटी वाली..मुन्ना जी की साली" वाली चिढावन हम सब वाकिफ है ऐसे बचपन से। असल में बहुत कुछ कहना चाहता हूँ पर ये खिड़की से आती बारिश की बूँदे मुझे बाहर बुला रही हैं नीचे आंटी के किचन से आती बेसन के पकौडो की खुशबू मुझे अनायस ही उनके घर आये मेहमान की और खींच ले जाती हैं।ये सब बस दो मिनट की मान मन्नोवर के पीछे की कहानी हैं जो बताती हैं "पेरेंट्स के स्ट्रीक" होने के शुरूआती लक्षण क्या हैं।
नाम तो शायद नही जान पाया लेकिन उम्र यही कोई आठ-नौ साल रही होगी,गोल-मोल शरीर फिर भी सुविधा अनुसार नाम अनु रख लेते हैं।
तुझे कितनी बार मना किया है बाहर मत खेला कर।(अनु की मम्मा की आवाज थी अनु के जवाब देने के बाद बता चला)
मम्मा आप कभी बाहर नहीं खेलने देते कोई खा थोड़ी जायेगा।(शायद ये शब्द इतने धीरे थे की बस में और अनु ही सुन पाये)मैं कमरे मे आ चुका था जो कि ग्राउंड फ्लोर के ठीक साइड में बने एक कोने मे फर्स्ट फ्लोर पर था।लेकिन मन मैं एक सवाल अब भी चुभ रहा था 'क्या अनु को घर में बाहर खेलने पर किसी के उठाये ले जानें का डर बताया जाता है?
शायद मैं अनु या उसके पेरेंट्स को शायद ना कह पांऊ लेकिन शायद मेरा लेखन मुझे इस और लिखने को मजबूर कर रहा हैं।
बचपन एक माटी की लौथडे की तरह है जिसे पेरेंट्स रूपी कुम्हार अपने हाथो से सँवारने की कोशिश करता हैं यहाँ सँवारने की कोशिश इसलिए क्यों की कुछ मिट्टी इतनी अलग होती है जिन्हें कुछ बना पाना मुश्किल होता हैं।जिन्हें खुली जमीन पर बिखर जाना,आसमान में धूल का गुबार बन उड़ जाना ही आता हैं और सच कहूँ ना तो ऐसे ही बचपन की खोज आज आपका बच्चा कर रहा हैं।आपने जमाने की फार्चूय्नर में अपनी रेनो क्वीड दबी होने का डर सीने से लगा लिया हैं। और इस डर से लड़ने की कोशिश में आप अपने बच्चों को ढाल बना रहे हैं इस तरह के व्यवहार से बच्चा कभी आपकी बातो को नही समझ पायेगा "वो अनु की तरह बेमतलब की जबान बोलने लगेगा" कहीं खुले आसमान में उड़ने को आपकी पांबदी की दीवार लांग जायेगा। मुँह जोरी करने लगेगा अपने आप को अछूत समझने लगे इससे बेहतर हैं उन्हें जानने की कोशिश कीजिए उन्हें छयी-छपा-छयी खेलने दीजिए,बारिश की बूँद होंठों पर लेकर तरह तरह के मुँह बनाकर पीने दीजिए।बचपन हैं उनका, जवाबदारी का बस्ता ना थमा दीजिए वरना एक दिन वो भी अनु की तरह आपकी फिक्र को आपका डर समझकर अपना बचपन मगजमारी का झंझट समझने लगेंगे।
बारिश और तेज हो चुकी थी लगभग पकौडो की खुशबू अब तक अंकल के पेट की खट्टी ढकार् बन चुकी होंगी। अनु भी टीवी पर छोटा भीम देखकर मम्मा से मुँह फुलाये सोने चली गयी होगी।मेरी उम्मीद भी दम तोड़ चुकी होगी भला क्यों इतना लम्बा इंतजार उस परवाज के लिये जिसे मेरे होने ना होने का रश्क नही जिसे मेरे बुझते अल्फाज को थाम लेना का होश नही।ऐसा ही होता हैं एक चाही गयी मोहब्बत के अनचाहे परिणाम में।आज फिर किनारे रखे चाय के खाली कप को देख रहा हूँ जिसे बीना धोये चार बार चाय डाल कर पी चुका हूँ आदत हो गयी तन्हाई में आंखे नम करने की पर जब भी बारिश होती है मुझे कुछ यूँ याद आता हैं।उस शाम हवा कुछ नम चल रही थी शायद कहीं बारिश बूँद बनकर धरती के गालों पर चूमने को गिरी होगी,उत्तर की और कोई दो सो गज मुझसे एक बिजली चमकी शायद कहीं मीलो आसमानी आफत आयी होगी या फिर कोई अब्राहम लिंकल सड़क के किनारे बैठा बिजली आने का इंतजार कर रहा होगा जो बारिश की वजह से अब तक गुल थी।हाँ ये ही होगा क्यों की बिजली ठीक उत्तर में गिरी थी और उत्तर में तो अमरीका हैं जनरल नाॅलेज की किताब में पढ़ा था।पर ये उत्तर उत्तर में ही क्यों हैं?दक्षिण या पूरब में क्यों नही?
मीनू से पूँछूगा,मीनू से तो पेंसिल लेनी है जो उसने गणित वाले पिरियड में तोड दी थी।
कुछ इसी तरह होता है बचपन जिसे ना किसी बात डर ना फिक्र।
सब डर बेमानी से लगते है जब मैं बचपन की गलियों में गाहे-बगाहें लौट जाता हूँ।
लेखन- विजयराज पाटीदार

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