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मंजिल तक पंहुचने के लिए नये और मुश्किल रास्ते भी चुनना जरूरी है

बात लगभग दो साल पहले ठंड के दिनों की है mba पूरा होने के बाद मैं ज्यादा से ज्यादा समय इंटरव्यू की तैय्यारी के लिए ही दे रहा था,लेकिन लगातार मुझे मिल रही असफलताओ से मैं थोडा चिंतित रहने लगा था,ऐसे में मेरे एक दोस्त ने मेरी परेशानी समझ कर मुझे कंही घूम आने की सलाह दी इससे मेरे दिमाग में चल रही एक जैसी चीजों से छुटकारा भी था और ठंड के दिनों में कंही घूम आने का अवसर भी,मैंने तुरंत हामी भर दी हम दोनों अगली ही सुबह घर से (आगर के पास) निकल गए,टूर ओम्कारेश्वर होते हुए मांडू पहुँचने का था,हम दोनों मेरी बाइक से उज्जैन होते हुए इंदौर आये और यंहा से फिर ओम्कारेंश्वर के लिए शाम को सात बजे निकले ठंड के दिन होने की वजह से हमे अँधेरे ने जल्दी अपनी आगोश में ले लिया,बीच में एक-दो जगह चाय नास्ता करते हुए हम बडवाह पंहुचे बहुत देर चलते रहने के बाद भी जब बडवाह में नर्मदा नदी पर बने पुल को हम लोग ढूंड नहीं पाए तो हम समझ गए कंही हम होना-ना-हो जरूर रास्ता भटक गए है वहीँ एक सज्जन से पता पूछने पर पता चला की हम बडवाह के पास बसे एक गाँव में और यहाँ से वापस बडवाह जाना सोलह किलोमीटर रहेगा लेकिन दूसरी और ही राहत की
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अपने अंश को समझिये

   अपने अंश को समझिये बचपन मिटटी की तरह है जिसे पेरेंट्स रूपी कुम्हार अपने हाथो से सँवारने की कोशिश करते हैं यहाँ सँवारने की कोशिश इसलिए भी क्यों की कुछ मिट्टी इतनी अलग होती है जिन्हें कुछ बना पाना मुश्किल होता हैं।जिन्हें खुली जमीन पर बिखर जाना , आसमान में धूल का गुबार बन उड़ जाना ही आता हैं और सच कहूँ ना तो ऐसे ही बचपन की खोज आज आपका बच्चा कर रहा हैं।आपने जमाने की फार्चूय्नर में अपनी रेनो क्वीड दबी होने का डर सीने से लगा लिया हैं और इस डर से लड़ने की कोशिश में आप अपने बच्चों को ढाल बना रहे हैं, इस तरह के व्यवहार से बच्चा कभी आपकी बातो को नही समझ पायेगा. नाम तो शायद नही जान पाया लेकिन उम्र यही कोई आठ-नौ साल रही होगी , गोल-मोल शरीर फिर भी सुविधा अनुसार नाम अनु रख लेते हैं। तुझे कितनी बार मना किया है बाहर मत खेला कर।(अनु की मम्मा की आवाज थी अनु के जवाब देने के बाद बता चला) मम्मा आप कभी बाहर नहीं खेलने देते कोई खा थोड़ी जायेगा।(शायद ये शब्द इतने धीरे थे की बस में और अनु ही सुन पाये)...मैं कमरे मे आ चुका था जो कि ग्राउंड फ्लोर के ठीक साइड में बने एक कोने मे फर्स्ट फ्लोर पर था।

अपने अंश को समझिये

बचपन मिटटी की तरह है जिसे पेरेंट्स रूपी कुम्हार अपने हाथो से सँवारने की कोशिश करते हैं यहाँ सँवारने की कोशिश इसलिए भी क्यों की कुछ मिट्टी इतनी अलग होती है जिन्हें कुछ बना पाना मुश्किल होता हैं।जिन्हें खुली जमीन पर बिखर जाना , आसमान में धूल का गुबार बन उड़ जाना ही आता हैं और सच कहूँ ना तो ऐसे ही बचपन की खोज आज आपका बच्चा कर रहा हैं।आपने जमाने की फार्चूय्नर में अपनी रेनो क्वीड दबी होने का डर सीने से लगा लिया हैं और इस डर से लड़ने की कोशिश में आप अपने बच्चों को ढाल बना रहे हैं, इस तरह के व्यवहार से बच्चा कभी आपकी बातो को नही समझ पायेगा नाम तो शायद नही जान पाया लेकिन उम्र यही कोई आठ-नौ साल रही होगी , गोल-मोल शरीर फिर भी सुविधा अनुसार नाम अनु रख लेते हैं। तुझे कितनी बार मना किया है बाहर मत खेला कर।(अनु की मम्मा की आवाज थी अनु के जवाब देने के बाद बता चला) मम्मा आप कभी बाहर नहीं खेलने देते कोई खा थोड़ी जायेगा।(शायद ये शब्द इतने धीरे थे की बस में और अनु ही सुन पाये)मैं कमरे मे आ चुका था जो कि ग्राउंड फ्लोर के ठीक साइड में बने एक कोने मे फर्स्ट फ्लोर पर था।लेकिन मन मैं एक सवाल अब भी चुभ

भ्रमण किस्सों का..

अलसुबह उठना सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है..ऐसा डॉ लोग कहते है लेकिन हम मानते कहा है ये बात तब और बिगड़ जाती है जब मेरे जैसे दुनिया की चिंता “भाड़ में जाये वाले” विचारों से करते है..खैर २० सितम्बर २०१७ यानी अभी एक हफ्ते पहले बीना डॉ की सलाह लिए अलसुबह ६.०० बजे उठना पडा,बात असल में कुछ ऐसी है की हमने प्लान किया था कंही बहार जाने का,घुमने का,मौज मस्ती करने का,हमने से मतलब मैं और अनुराग,जी हां अनुराग वही है जिनका जिक्र में अपने एक छोटे लेखन “नमक स्वादानुसार-बस टाइटल चोरी का है” में कर चुका हूँ..हां तो सीधे अपने यात्रा व्रतांत पर आता हूँ..सुबह उठे तो मौसम साफ़ नहीं था और ये सब असर था पूर्व में बने कमजोर मानसूनी दबाव का जिससे मध्य-प्रदेश और आस पास के प्रदेशो में भारी बारिश की चेतावनी दी गयी थी..फिर भी हमने सोचा जाना जरूरी है क्योंकि दो दिनों से जाने को जो ठीन्डोरा जो हमने बाकी तीन ना जाने वाले साथियों के सामने पिटा था वो बाहर हो रही बारिश का मज़ा लेकर हमे मन ही मन ये जता और बता रहे थे की “लो,ले घुमने का,घंटा पानी अब कंही ना जाने दे तुमको”..लेकिन हमारे विचारो ने सांठ-गाँठ कर ली थी..हमने स

कल की बात और मिताली राज

कल की बात और मिताली राज ................. ................... रविवार का दिन,ऑफिसियल छुट्टी,फुर्सत या ये कह लीजिये एक बैचलर के लिए तमाम वो काम करने का दिन जो वो सप्ताह के ६ दिन नहीं कर सकता,सुबह वैसे नहीं हुयी जैसे रोज होती थी..आज थोड़ी देर तक सोया,लगभग साढ़े नौ बजे तक जब आँख खुली तो दीपक और सचिन अपनी कॉम्पिटिशन एक्साम की तैयारियो में वयस्त थे,मैंने ब्रश करने के बाद सीधे डेयरी पर जाकर दूध और पास वाले रेस्टॉरेंट से पांच पुड़िया पोहे पैक करवाये..रूम पर आकर हम सब ने संडे को स्पेशल बनाने के लिए कोई बेवजह का मुद्दा नहीं छेड़ा और ना किसी बात पर चर्चा की,आंटी ने खाना बनाया,.....हां क्या बनाये? इस पर थोड़ी चर्चा करने के बाद दाल बाटी बनाने का DECISION हुआ अब बारी थी निचे जा कर मकान मालकिन से ओवन लाने की अगर गांव में होता तो माँ गाय के गोबर से बने कंडो की धुनि बनाकर बाटी भार देती लेकिन शहरो ने गांवों के रिवाजो,परम्पराओ को लील लिया जैसे एक कुंवारी कन्या को एक चुटकी सिन्दूर सुहागन होने की सैज पर लील जाता है लेकिन दूसरी और आज का दिन ख़ास और बहुत ख़ास भी होने वाला था मिताली राज और उनकी टीम की पंद्रह-स

अवि वाली अंकिता..

जब भी कभी पहली दफा हाथ में पेम-पेन्सिल-कलम पकड़ी होगी उस दिन शायद में बहुत रोया होगा,इसलिए नहीं की में लिखने से दर रहा था बल्कि इसलिए कंही में गलत ना लिख दूँ,जब में स्लेट पर "अ" बनाने की कोशिश करता था तो वो हमेशा मेरी टीचर को "8" की तरह ही दिखता था,फिर मैंने धीरे धीरे उस "8" को सही करके "अ" बनाने लगा,सब खुश हुए मेरी टीचर,मेरे पापा,मेरी माँ और शायद अंकिता भी,अंकिता का जिक्र करना यंहा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वो जब भी मुझे कुछ सीखते या करते देखती वो बहुत खुश होती,स्कूल में आने वाले हर बच्चो की तरह ही वो भी थी क्लास में हम दोनों के बेंच के दोनों कोनो के आस पास ही बैठते थे बीच में जो थोड़ी जगह होती थी वो हमारे बस्ते रखने से भर जाती थी वो टिफ़िन नहीं लाती थी वजह कभी उसने मुझे नहीं बताई और मैंने पूछा भी नहीं,मैं अपने टिफिन में उसके लिए भी खाना लेकर आता था या फिर मेरी मम्मा को पता था मेरे साथ अंकिता भी खाना शेयर करती है शायद मैंने ही उन्हें कभी अंकिता के टिफिन ना लाने वाली बात बताई हो,एक दिन लंच ब्रेक में स्कूल के ग्राउंड में लगे गुल्लर के पेड़ के नीचे हम

जिंदगी की पहली दारू पी नहीं,पीला दी जाती है..

जिंदगी की पहली दारू पी नहीं,पीला दी जाती है यूँही फ्री में जिसका उधार कितनी ही बार साथ बैठ कर पी लो लेकिन चुकाने का मन नहीं होता या फिर चुकाने की याद नहीं आती,वैसे तो दारु पर लिखना उतना ही बेकार है जितना बस में सफर कर रहे हो और पास में बैठा कोई यात्री आपकी गोद वाश बेसिन समझ कर खा या पीया उड़ेल दे,पर मुझे लिखने के लिए किसी प्रकार की कोई भी इंस्पिरेशन की जरूरत नहीं होती अच्छा लगे या बुरा में बस लिख देता हूँ और शायद हम सब बस इन वजहों से पीछे रह जाते है क्योंकी हम दुसरो की प्रतिक्रिया के इंतज़ार में अपने मन के किस्से,बाते कभी बहार ला ही ना पाते..जिंदगी के पहले हर वो काम जो किये नहीं करवाए जाते है..कभी सुना है किसी बच्चे ने सत्नपान किया नहीं ना माँ ने करवाया पहली बार,आपको याद है जिन्दी की पहली सु-सु खुद ने की थी,किसी ने सु-सु बोलकर करवाई थी,साला मुझे तो दुनिया में लाने के लिए भी नर्स ने सांस दी थी,पोट्टी भी जंहा तक याद है शायद माँ ने आकस्मिक आवाजों के सहारे ही करवाई थी,ऐसा ही कुछ मेरे जहन में किस्सा आता है जब में अपने पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए उज्जैन आया था,सही सोच रहे है आप वही उज्जैन जिसे महा