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भ्रमण किस्सों का..

अलसुबह उठना सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है..ऐसा डॉ लोग कहते है लेकिन हम मानते कहा है ये बात तब और बिगड़ जाती है जब मेरे जैसे दुनिया की चिंता “भाड़ में जाये वाले” विचारों से करते है..खैर २० सितम्बर २०१७ यानी अभी एक हफ्ते पहले बीना डॉ की सलाह लिए अलसुबह ६.०० बजे उठना पडा,बात असल में कुछ ऐसी है की हमने प्लान किया था कंही बहार जाने का,घुमने का,मौज मस्ती करने का,हमने से मतलब मैं और अनुराग,जी हां अनुराग वही है जिनका जिक्र में अपने एक छोटे लेखन “नमक स्वादानुसार-बस टाइटल चोरी का है” में कर चुका हूँ..हां तो सीधे अपने यात्रा व्रतांत पर आता हूँ..सुबह उठे तो मौसम साफ़ नहीं था और ये सब असर था पूर्व में बने कमजोर मानसूनी दबाव का जिससे मध्य-प्रदेश और आस पास के प्रदेशो में भारी बारिश की चेतावनी दी गयी थी..फिर भी हमने सोचा जाना जरूरी है क्योंकि दो दिनों से जाने को जो ठीन्डोरा जो हमने बाकी तीन ना जाने वाले साथियों के सामने पिटा था वो बाहर हो रही बारिश का मज़ा लेकर हमे मन ही मन ये जता और बता रहे थे की “लो,ले घुमने का,घंटा पानी अब कंही ना जाने दे तुमको”..लेकिन हमारे विचारो ने सांठ-गाँठ कर ली थी..हमने सुबह की चाय सबके साथ पी कर निकलने का निश्चय किया और हम ७.२५ पर हलकी बारिश के बीच इंदौर-पीथमपुर हाईवे पर थे..धीरे धीरे पानी और तेज़ हो रहा था जिसके बीच रोड पर चल रहे वाहनों को देखना और भी मुश्किल हो रहा था..जैसे-तैसे हम मनावर तक पहुंचे बता दूँ मनावर में ऊँची पहाड़ी पर माँ आशापूर्ण का भव्य मंदिर बना हुआ है जो पहाड़ी की हरियाली चादर ओड़ कर और भी सुंदर प्रतीत होता है,नीले आसमानों से घिरी पहाड़ी बारिश में ऐसे मदहोश हो रही हो जैसे किसी ने इसे झूम कर गले से लगा लिया हो..बारिश की बुँदे हमे कम और पहाड़ी को ज्यादा भिगो रही थी,तभी तो हर जगह से छोटे छोटे झरने बह रहे थे..पेड़ो के पत्तो से टपकते पानी की बूंदों को देख-कर मानो लैला-मजनू,शिरी-फराद के आंसू सामने हो इतने कोमल,इतने निश्छल की बस इन्हें देख कर अपने पर महसूस करते रहे हो..धीरे धीरे हम पहाड़ी पर चढ़ रहे थे प्रकृति हमे अपने में समां रही थी निचे ज़मीन कही १०० फुट नज़र आ रही थी भीगते हुए सारे शहर को देखना अलग ही आनंद देने वाला पल होता है,मैंने ऐसा कहीं बार महसूस किया है जब में बारिश में शहर के आस-पास की छोटी-छोटी पहाडियों पर होता था बस  फर्क इतना सा है उन दिनों मैं बिट्टू के साथ इन्हें महसूस करता था..बारिश की बूंदे,चमकती बिजली,घुमड़ते बादल,हवाओ का मर्म स्पर्श लेकिन आज सब बदल चुका है..अब या तो में अकेला होता हूँ या खुद में उलझा हुआ खैर छोडिये हम बात आज की करते है कल की तो तारीख भी लोग कैलेंडर से हटा देते है..माता का अभिभूत कर देने वाला श्रंगार,घंटियों की आवाज़,महकते गेंदे के फूलों से सजा मंदिर,धुप-अगरबत्तियो की आती हुयी खुशबु से मन श्रधा से भर जाता है माँ के दर्शन करते ही हम लोग बाहर निकलते है..मेरी नज़र में कुछ आया है ज़रा रुकिये अगर मैंने इनके बारे में आपको नहीं बताया तो शायद इस कंही सो फ़ुट ऊँची पहाड़ी पर बूंद-बूंद गिरते पानी का,बहते झरनों का,चलती हवाओ का,यकीनन कोई मतलब नहीं..नाम से शायद अनजान ही कहूंगा लेकिन जितना सुंदर चित्रण में कर सकता हूँ वो उसकी सुन्दरता का मात्र कुछ भर हिस्सा रहा होगा..आँखे इतनी गोल की बचपन में मास्टर जी कही बात याद आ गयी “दुनिया गोल है”,आँखों के अंदर चमक इतनी की सूरज भी फीका लगे,आँखों के अंदर काला मोती जैसे गोरे-सफ़ेद-झक शरीर पर काला टीका होगा..आँखों की पुतलियो की हरक़त जैसे किसी तितली का पंख फडफडाना हो,गालो तक आती काले रेशमी बालो की लट जितनी बार उसके गालो को हवा के झोंको से चूम रही थी उतनी ही बार वो अपने मुलायम हाथो से उन लटो को करीने से संभाल कर अपने कानों के पीछे ऐसे जमा देती मानों नोटबंदी के बाद बैंको में पुराने नोट व्यवस्थित रखे हो..स्तनों का जिक्र मात्र ही बहुत है मानो ऐसा लग रहा था मेरी नज़र में दुनिया तीसरी बार गोल हुयी हो..पानी की फुआरो से भीगा चेहरा..गले से नीचे रिस कर आती हुयी पानी की बूंद धीरे धीरे एक गहरी खाई में समाये जा रही थी इससे पहले की पानी बूंद मुक्कल जहां में समां जाती उस खुबसूरत चेहरे ने हरकत की..अपने आँचल से अपने सुराही जैसे सदे गले को पोंछ लिया..चेहरे पर चमक अब और भी तेज़ थी बारिश ने अपना काम कर दिया था एक अनजान लड़की बारिश में भीग कर और भी खुबसूरत लगने लगती है..कमर मानो अपने ही घमंड पर इतरा रही हो..पैरो में छम-छम करती पायल उसकी चाल को हिरनी सा बना रही थी..उसका किसी कारण कुछ पल यूँ मुस्कराना उस मौसम में और भी मिठास खोल रहा था..उसके साथ यूँ पहाड़ी से नीचे आना जैसे बीना पैरसूट के आसमान से धरती पर छलांग लगाना हो..जैसे-जैसे वो हमारी आँखों से ओझल हो रही थी वैसे-वैसे ही मौसम भी अब खुलने लगा था..मैंने अनुराग से पूछा क्या ये बारिश इन मोहतरमा की खूबसरती में चार-चाँद लगाने के लिए थी?..जवाब में वही मिला जो अक्क्सर उम्मीद करता हूँ..अब हम अपने अगले पडाव की और निकल चुके थे मौसम में बस अब नमी थी हालात भी हमारे पक्ष में नज़र आ रहे थे..दो घंटे का सफ़र..८० किलोमीटर की यात्रा चार कप चाय-दो समोसे और पहुँच चुके थे मांडू के करीब,जी हाँ वो मांडू जिसे जीवंत प्रेम-कहानी का प्रतीक मन जाता है रानी रूपमती और बादशाह बाज-बहादुर की प्रेम कहानी,हीरा निगल कर अमर हो जाने की प्रेम-कहानी..२००० फुट की ऊंचाई पर,हरे-भरे जंगलो से उठते बादलो के बीच शान-आन-बान और सम्मान से खड़े किले-मकबरे प्रतीक है उस अमर प्रेम-कहानी और मांडू के विशाल ह्रदय होने के..सालो तक कंही राजाओ-मुगलों की राजधानी में रहा मांडू का किला अपनी सुन्दरता को कहता है..घुमाव-दार रास्तो से चढाई शुरू होती है हसीं-मनमोहक नजारों के साथ विंध्यांचल की ये पहाड़ियां और भी खुबसूरत लगती है जब बादल धुंध बनकर जंगलो से उठते नज़र आते है..ऊँचे नीचे पठारों से बने रास्तो पर अनेक पानी के बहते स्त्रोत नज़र आते है..ऐसे ही एक जल-प्रपात में मौज-मस्ती करने के बाद हमने किले तक पहुँच-कर सबसे पहले स्वागत करते किले खुबसूरत दिल्ली दरवाजा से प्रवेश किया फिर हमने जामी-मस्स्जिद पहुँच कर खुबसूरत कला से संजोये मकबरों को देखा धीरे धीरे जितनी मर्तबा किले की दीवारों से हाथ छु जाता उतनी दफा महसूस होता कितनी सिद्दत से एक बादशाह ने अपनी हिन्दू प्रेमिका के लिए इन इमारतो का निर्माण करवाया होगा ये भी सच है की मांडू और इसकी इमारतो का विकास अलग शासनकाल में अलग सल्तनत के द्वारा करवाया गया,कहा जाता है ताजमहल को मूर्त रूप भी यहाँ के होशंगशाह के मकबरे को तल्नीनता से देख लेने के बाद दिया गया..मांडू इसलिए भी ख़ास है क्योंकि बाज की कहानी में अकबर का भी अहम किरदार है..धीरे धीरे हम मांडू में फैले धुंध में गुम हो रहे थे..एक के बाद एक महलो,मकबरों,हमामो को देखने के बाद रानी रूपमती के महल में प्रवेश किया ऐसा कहा जाता है इस ऊंचाई पर रानी रूप का महल बनाने का सबसे अहम् कारण था उनकी रोज सुबह उठकर माँ नर्मदा के पवन दर्शन के बाद अन्नग्रहण करने की प्रतिज्ञा से..जितना सुंदर नज़ारा इस ऊंचाई से मांडू की विंध्यांचल पर्वत-श्रंखला का दिखता है उतना ही किसी और जगह से नहीं..एको पॉइंट,दाई का महल,चम्पा बावड़ी सब अपने में एक कहानी कहती है..मैं यहाँ बहुत बार आ चुका हूँ इसलिए हमे किसी मार्गदर्शक की जरूरत नहीं रही अगर पहली दफा मांडू यात्रा पर जाये तो एक अच्छे से गाइड को अपने साथ रखे ताकि मांडू की शिल्पकला और मांडू से जुड़े रहस्यों को आप जान समझ सके...आसमानी खुबसुरती अब काले घने बदलो में चिंता के रूप में बदल रही थी..इतनी ऊंचाई पर बादल भी हममे से या हम बादलो में से गुजर रहे थे हल्के भीगे हुए हम धीरे धीरे पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे अँधेरा भी हमें घेरने को विवश था लेकिन हमारी अगली मंजील की और जाने की हमारी इच्छा-शक्ति ने हमें सफ़र जारी रखने की आत्मीय-शक्ति प्रदान की..शाम करीब ८.०० बजे हम महेश्वर की सीमा में दाखिल हुए तो शायद आँखे सन्न और दिमाग सुन्न रह गया दरअसल हम जिस पवन नगरी में थे उसी पवन नगरी में आज रात नदी-अभियान के तहत अपनी यात्रा कर रहे समाजसेवी संत जग्गी वासुदेव जी का भी आगमन था..हमारे होटल पहुँच कर कमरे किराये पर संतुष्ट होने के बाद हमने अपना सामान रख कर दिन भर की थकान मिटाने के लिए गर्म पानी से स्नान करना ठीक समझा..आप सोच रहे होंगे मैंने प्री बुकिंग क्यों नहीं की या मैंने किसी ऑनलाइन होटल बुकिंग का सहारा क्यों नहीं लिया तो बता दूँ जब ऐसी जगह घुमने जाते है जहाँ का व्यापारिक मौसम कमजोर और पर्यटकों के भरोसे हो तो आप प्री बुकिंग ना करे क्योंकि ज्यादातर पर्यटक साफ मौसम में आना पसंद करते है ऐसे में प्री बुकिंग शायद ठीक हो लेकिन जब इक्का-दुक्का पर्यटक हो तब होटल में जा कर ही कमरे जगह भोजन देखकर ही बुकिंग करे ताकि बार्ग्निंग करके कुछ पैसे बचाए जा सके..घुमने जाने के साथ ही अपने जरूरी-और-गैरजरूरी सामान में कमी भी आपको समझना चाहिए है...हम नहाने के बाद सीधे माँ नर्मदा के देवी अहिल्या घाट पर पहुंचे जहाँ पहले से ही सांस्क्रतिक कार्यक्रम चल रहे थे पूछने पर पता चला ये सारी तैय्यारिया जग्गी वासुदेव सद्गुरु के स्वागत आगमन हेतु हो रही है..हमने भी कल-कल बहती नर्मदा के किनारों पर बने भव्य घाटो से होकर देवी अहिल्या घाट पर जमी कुर्सियों पर अपनी तशरीफ़ रख दी..मंच से संगीत की ध्वनि,माँ नर्मदा की लहरों को छु-कर बहती ठंडी ताज़ी हवा,असमान में टीम-टिमाते तारे..आधा चाँद जो धीरे धीरे पूरा होने के कोशिश कर रहा था..मंच पर खरगोन के आदिवासी नृत्य कला ने दर्शको को मंत्र-मुग्ध कर दिया धीरे धीरे समय जाता रहा इसी इन्तजार को खत्म करती हुयी बैंड-ताशो की आवाज़ ने हमारा ध्यान खींचा घाट के दुसरे छोर से सफ़ेद बड़ी दाड़ी माथे पर टोपी लगाये हाथो में ग्लब्ज पहने हुए रेसिंग सूट में स्वंयं सद्गुरु चले आ रहे थे बता दूँ जग्गी स्वंयं अपनी कार चला कर इस यात्रा को पूर्ण कर रहे है..उनके चेहरे पर जो तेज़ था वो वंहा के थके हारे सुस्त माहोल में ऊर्जा सामान दौड़ गया सबने उत्साह-जोश के साथ उनका स्वागत किया उनके साथ घाट आरती करने का सोभाग्य पा कर वहां मौजूद हर इंसान अपने आप को धन्य महसूस कर रहा था..आरती के बाद उनके विचारो को सुनने का अवसर प्राप्त उनकी मुहीम नदी अभियान में अपना समर्थन देने के बाद हम फिर होटल की तरफ चले आये देर रात और छोटी जगह होने की वजह से खाने का विकल्प हमारे पास नहीं था..ढाबे..रेस्टोरेंट बंद हो चुके थे..वहीँ एक चाइनीज व्यंजन बेचने वाला भी भी अपने जाने की तैय्यारी कर रहा जिसे हमने बड़ी मन-मनोव्वर के बाद दो प्लेट नुडल्स बनाने के लिए राजी कर लिया..करीब आधे घंटे में हम नुडल्स का लुफ्त उठाकर होटल पहुँच चुके थे..जहाँ जा कर अनुराग ने सीधे बिस्तर पकड़ा..लेकिन मुझे ना जाने क्यों वो लड़की याद आ रही थी जिसे मैंने आज सुबह बारिश में बिगते हुए देखा बार उसकी आंखे मुझे कुछ याद दिला रही जिसे में रात भूलने की कोशिश करता हूँ वही फिर याद आ रही थी..जिदगी सच में अधूरी उसके बीना जिसे सिद्दत से मुद्दतो तक चाहते रहे..मांडू जाना इसलिए भी पसंद करता हूँ क्योंकि यहाँ की आबो-हवा में प्रेम बहता है..मैं भी उसके इश्क में बाज होना चाहता हूँ जिसे अपने रूप पर अभिमान है..लौटा दो मुझे वो पल फिर से जिस पल हम मिले थे.,ख्यालो में कब नींद लगी और सुबह हो गयी पता ही नहीं चला..महेश्वर की सुबह इतनी शांत और खुश-मिजाज़ दी की हमने मौसम की तफरी करते हुए दो-दो कप चाय पी ली...नहा कर हम महेश्वर की सैर पर निकल पड़े कहा जाता है यहाँ की चंदेरी साड़ीयाँ को अपना एक अलग मुकाम है..बाज़ार से होते हुए हम पहुंचे देवी अहिल्या के किले पर जो इतना साधारण और भव्य बना जिसे देख कर जन-मानुस को जरा भी अहसास ना हो की वो सल्तनत में खड़े हो..यही खासियत थी अहिल्या बाई की जब राज-गद्दी अकारणवश सम्भालने का अवसर तब उन्होंने अपने कर्तव्यो की खातिर अपने श्रंगार को नज़र-अंदाज़ कर दिए..साधारण तरीके से निर्मित किले में मंदिर-परम्पराओ का मिश्रण है..अब कीमती सामान सजावटी तोर पर रखे है जो उस ज़माने की याद तारो-ताजा करते है..किले से नीचे उतरते ही घाट के किनारे सुंदर कला से सुसज्जित मंदिर बने है जो बयाँ करते है देवी भगवान् की कितनी बड़ी भक्त थी..अपनी खुशल बुद्दी और व्याहार की वजह से बीना अपने शासनकाल में युद्ध लड़े अपनी सत्ता-सल्तनत को निरंतर बढाया था..घाट पर पहुँच कर भ्रमण करना बहुत शानदार प्रतीत होता है जब दूर तक फैली माँ नर्मदा अपना विशाल ह्रदय लिए जन-मानुस को नौका विहार का अवसर प्रदान करती है..हमने भी एक महल्ला से घाट के उस पार ले जाने का सौदा तय किया..इसके बाद हम नौका-विहार का आनंद लेते हुए माँ नर्मदा में बहते पानी के बीच अपना वजूद कायम रखने की कोशिश करती मछलियों को निहारने और उन्हें छुने की असफल कोशिश करने लगे...धीरे धीरे घाट की सवारी का आनंद अंतिम चरण में पहुंचा और हमने भी माँ नर्मदा को प्रणाम कर एक ढाबे की तलाश शुरू कर दी..इस बार दिन होने की वजह से बहुत से भोजनालय खुले थे..जिसमे से हमने गणेश भोजनालय के व्यंजनों का लुफ्त उठाया..करीब १.०० बजे दोपहर में महेश्वर के पास ही स्थित माँ नर्मदा के बहने से बने जल-प्रपात को देखने निकल गए..द्रश्य इतने मनोरम-रमणीय थे की मन उल्लास से भर गया नदी की धाराओं में करीब एक घंटे तक मौज-मस्ती करने के बाद हम सीधे ओंकारेश्वर के लिए निकल गए..भगवान् शिव की नगरी,माँ नर्मदा का पवन स्थल और धार्मिक माहोल से सारा-बोर है ओंकारेश्वर..बड़े-छोटे पुल,बिजली उत्पादन के लिए रोका गया पानी,बड़ा डेम,सब कुछ मन को लुभाने वाला द्रश्य है..मंदिर में घंटियों की मधुर आवाज़,शंखो की एक सुर-ध्वनि,धुप-अगरबत्तियो की खुश्बू से भरा वातावरण अति मंन-मोहने वाला है..दर्शन करने के बाद ओंकारेश्वर से हमने वापस घर आने का फैसला किया करीब शाम पांच बजे हम निकल चुके थे..इस बार मौसम साफ़ था खुला आसमान,दूर तक नज़र आने वाले रास्ते..धीरे धीरे हम घाट की चढाई कर रहे थे पहाड़ो के बीच आँखों से ओछल होते सूर्य का चित्रण अति सुन्दर प्रतीत हो रहा था..लालिमा आस्मां के एक कोने-किनारे पर छायी थी जो साफ़ साफ़ बता रही थी “हाँ यहीं अस्त हुआ है आज का सूरज..देखो मेरे सामने वहीँ से उगेगा कल का सूरज”..यात्रा अपनी दुरी तय करती हुयी शाम ८.०० बजे इंदौर पहुंची जिसे अनुराग और मैंने फिर से एक-एक कप चाय और समोसे पूर्ण किया...मैं तो कहता हूँ आप भी देखिये किस तरह एक कश्मीर हमारे बीच भी है जिसे मालवा का कश्मीर कहते है जो घिरा है विंध्यांचल पर्वत-श्रंखला से..जिसने समेटे है अनेको-नेक झरने-जंगल और प्रेम-कहानियो के किस्से..तो हो आइये आप भी मांडू-महेश्वर-ओंकारेश्वर यात्रा पर...तुम फिर मिलोगी उम्मीद कम ही है..लेकिन सच में तुममे नशा है..नशा है..एक बार फिर होने दो बारिश..महक जाने दो मिटटी..मैं फिर आउंगा तुमसे मिलने...



लेखन- विजयराज पाटीदार 

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अच्छी लड़की......

लोग मेरे साथ रह नही सकते उनको लगता हैं निहायती बदद्तमीज,बद्दिमाग इंसान हूँ और सिर्फ इसलिए नही कह रहा हूँ क्योंकि ये मैं सोचता हूँ बल्कि इसके पीछे एक खास वजह हैं "मैंने जिंदगी में कभी कोई काम सही तरीके से सही करने की कोशिश नही की" लोगों ने मेरे साथ रिश्ते बनाये उन्हें बेडरूम की बेडशीट की तरह इस्तेमाल किया यहाँ बेडरूम की बेडशीट शब्द का उपयोग इसलिए सही हैं क्योंकि कुछ रिश्ते चेहरों से शुरू होकर बिस्तर पर बाहों में बाहें डाले हुये दम तोड़ देते हैं साथ छोड़ देते हैं "बैडरूम की बेडशीट और लोगो से मतलब सिर्फ गंदगी भरी उलझनों से है लिखते समय हरगिज़ नहीं सोचता क्या लिख रहा हूँ पर सच कहूं तो ये वो सड़ांद है जो समाज के दिमाग में आज भी भरी है" और मेरे जैसे नामाकुल "कुल" की लाज भी नही बचा पाते हैं मुझे समझना नामुमकिन था इसलिए लोगों ने कुछ उपनाम दे दिये इसलिए की मैं बुरा इंसान हूँ लेकिन आप जानते हैं जब आदमी चोंट खाता हैं तो फिर वो दुनिया को ठेंगा दिखाने लग जाता हैं क्यों वो जान चुका होता हैं उसे राॅकस्टार के रनबीर कपूर की तरह अंत मे नरगिस मिल जायेगी वो नरगिस जो समाज की

आत्महत्या या ह्त्या..?

जीवन ऊपर वाले का दिया हुआ सबसे अनमोल तौहफा है फिर ना जाने क्यों इस अनमोल तौह्फे की कद्र नहीं कर पाते दरअसल में बात जीवन की नहीं बल्कि इस जीवन में हमसे जुड़े लोगो की भी है क्यों कोई कैसे अपने आपको ख़त्म कर लेता है क्या उसको उससे जुड़े किसी इंसान की जरूरत ने नहीं रोका होगा..ये तब सोचता था जब मैंने जिंदगी को इतने करीब से नहीं जाना था.. असल में बहुत कुछ होता है जो हमे रोकता है इस तरह करने से पर इन सब बातो से भी ऊपर वो है जो अब तक हम जिंदगी जीने के लिए सहते आये..मान,सम्मान,पैसा,भविष्य सब कुछ जब लगता है सुरझित नहीं है तब इंसान अपने आप को जहर की गोलियों में,फांसी के फंदे में,धार की गोद में ढूंढता है..इस वजह से इस कहानी को नाम दिया है..आत्महत्या या हत्या..? हत्या इसलिए भी क्यों की ये समाज द्वारा,परिवार द्वारा दी गयी मौत ही तो है जो जिंदगी हारने  पर मजबूर करती है... बात पिछले दिनों की है दो मासूम बच्चियां सारी रात बिलखती रही अपनी माँ की बंद आँखों को खोलने की कोशिश करती रही..ये समाज का दिया उपकार ही तो था, या फिर खुद का जिंदगी से हार जाना..वो चली गयी है अब ये समाज के सामने का पहलु है.. लेकिन

कच्ची मिट्टी के घड़े

उस शाम हवा कुछ नम चल रही थी शायद कहीं बारिश बूँद बनकर धरती के गालों पर चूमने को गिरी होगी,उत्तर की और कोई दो सौ गज मुझसे एक बिजली चमकी शायद कहीं मींलो दूर आसमानी आफत आयी होगी या फिर कोई अब्राहम लिंकल सड़क के किनारे बैठा बिजली आने का इंतजार कर रहा होगा जो बारिश की वजह से अब तक गुल थी।हाँ ये ही होगा क्यों की बिजली ठीक उत्तर में गिरी थी और उत्तर में तो अमरीका हैं जनरल नाॅलेज की किताब में पढ़ा था।पर ये उत्तर उत्तर में ही क्यों हैं?दक्षिण या पूरब में क्यों नही? मीनू से पूँछूगा,मीनू से तो पेंसिल लेनी है जो उसने गणित वाले पिरियड में तोड दी थी। कुछ इसी तरह होता है बचपन जिसे ना कहीं खो जाने का डर ना ही दादी नानी की सफेद साड़ी वाली चुडैल के उठा ले जाने का खौफ या फिर गोलु के घर की टपरी की घास बारिश के बवंडर में उड जाने का डर या रिंकु का क्लास में सबसे आगे बैठ जाने का डर।खैर ऐसे डर से हम सब दो चार होते आये हैं..जिंदगी में हम सब ने ऐसी ही किसी बारिश में बीना लड़की के साथ भीग जाने वाले अहसास जीये हैं तरबतर् कपड़ो में पानी से भरे खड्डो में छयी-छपा-छयी खेलने का आंनद रिया की स्कूल ड्रेस पर बचा हुआ